तुम्हारे खयालों को उंडेल कर अपनी साँसों में
बिन लफ्ज़ों की एक नज़्म बुनी थी मैं ने एक बार
पलकों के तले एक मुंडेर बना कर बड़ी नज़ाकत से उसे रोपा था
आँखों की नमी से कभी सींचा
तो कभी ज़हन तक उसकी जड़ों को खींचा
लगता है अब वो पनपने लगी है
हरी हरी सी लगती है सारी कायनात अब
आँखों में चुभन का एक टुकड़ा सुस्ताता रहता है
एक कतरा ख़ून का भी लुढ़क गया था कल आँखों से
शायद काँटे उगने लगे हैं उस नज़्म पर अब
लेकिन जल्द ही तुम्हारी नेल पॉलिश का रंग चुरा कर लाल फूल भी निकलेगा
और कर देगा मेरी आँखों को सुर्ख लाल.
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