Sunday, September 7, 2014

काली

स्याही तो ना जाने कबकी सूख चुकी थी उन भीड़ भरे पन्नों में

लेकिन पन्नों पर बिखरे अल्फाज़ ना जाने क्यों

तुम्हारी नमी में भीगे हुये रेंगते ही रहे

धूप दिखाई और आँच दी उनको कि शायद अब सूख जायें

कमज़ोर पन्ने और लंगड़े अल्फाज़ उस आँच में भस्म हो कर राख हो गये

पर नमी तुम्हारी चुपके से भाप बन कर गुमशुदा हो गयी वहाँ से

छुपते छुपाते मुझसे ही बचते बचाते मेरे जिस्म के सारे रोंयों पर सेंध लगा कर

मेरी नसों की सुरंगों में घुटनों के बल रेंगती हुयी

ना जाने कब और कैसे मेरी आँखों के किसी कोने में रक्तबीज बन कर छुप गयी.

हर रात अनगिनत रक्तबीज लुढ़कते रहते हैं बंद पलकों से

सारा तकिया गीला मिलता है सुबह

अब तुम ही काली बन कर आओ



शायद तकिया सूखा मिले कल सुबह. 

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