स्याही तो ना जाने कबकी सूख चुकी थी उन भीड़ भरे पन्नों में
लेकिन पन्नों पर बिखरे अल्फाज़ ना जाने क्यों
तुम्हारी नमी में भीगे हुये रेंगते ही रहे
धूप दिखाई और आँच दी उनको
कि शायद अब सूख जायें
कमज़ोर पन्ने और लंगड़े
अल्फाज़ उस आँच में भस्म हो कर राख हो गये
पर नमी तुम्हारी चुपके से भाप
बन कर गुमशुदा हो गयी वहाँ से
छुपते छुपाते मुझसे ही बचते बचाते मेरे जिस्म के सारे रोंयों पर सेंध
लगा कर
मेरी नसों की सुरंगों में घुटनों के बल रेंगती हुयी
ना जाने कब और कैसे मेरी आँखों के किसी कोने में रक्तबीज बन कर छुप
गयी.
हर रात अनगिनत रक्तबीज लुढ़कते रहते हैं बंद पलकों से
सारा तकिया गीला मिलता है सुबह
अब तुम ही काली बन कर आओ
शायद तकिया सूखा मिले कल सुबह.
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