Saturday, September 6, 2014

ना जाने कब

एक खुरदुरन सी पसीजती रहती है

स्याह रातें सासों में घुलती रहती हैं

बुझी हुयी माचिस की तीलियों से उठते हुये जाने पहचाने धुयें

अजनबी सी परछाईयाँ कैनवस पर लीपते रहते हैं

उन परछाईयों में एक इंद्रधनुष बोया है

हथेलियों की नमी से सींचता हूँ हर रोज़

ना जाने कब फूल फूटेंगे

और ना जाने कब उनकी खुश्बू का कम्बल

तुम लपेट कर रख जाओगी


मेरे बिस्तर के पैताने.