Wednesday, September 10, 2014

नज़्म

तुम्हारे खयालों को उंडेल कर अपनी साँसों में

बिन लफ्ज़ों की एक नज़्म बुनी थी मैं ने एक बार

पलकों के तले एक मुंडेर बना कर बड़ी नज़ाकत से उसे रोपा था

आँखों की नमी से कभी सींचा

तो कभी ज़हन तक उसकी जड़ों को खींचा

लगता है अब वो पनपने लगी है

हरी हरी सी लगती है सारी कायनात अब

आँखों में चुभन का एक टुकड़ा सुस्ताता रहता है 

एक कतरा ख़ून का भी लुढ़क गया था कल आँखों से

शायद काँटे उगने लगे हैं उस नज़्म पर अब

लेकिन जल्द ही तुम्हारी नेल पॉलिश का रंग चुरा कर लाल फूल भी निकलेगा


और कर देगा मेरी आँखों को सुर्ख लाल.